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दुनिया की सबसे मज़बूत मुद्रा डॉलर

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वैश्विक बाज़ार में डॉलर का वर्चस्व

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख के अंतर्गत वैश्विक बाज़ार में डॉलर के वर्चस्व और उसकी भूमिका पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

अमेरिकी डॉलर निस्संदेह वैश्विक वित्तीय प्रणाली का प्रमुख चालक है। केंद्रीय बैंकों के लिये प्रमुख आरक्षित मुद्रा से लेकर वैश्विक व्यापार एवं उधार लेने हेतु मुख्य साधन के रूप में अमेरिकी डॉलर विश्व भर के बैंकों और बाज़ारों के लिये महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। वर्ष 2017 में जारी एक शोध पत्र के मुताबिक कुल अमेरिकी डॉलर का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा अमेरिका से बाहर मौजूद है। यह आँकड़ा विश्व की अन्य अर्थव्यवस्थाओं के लिये डॉलर के महत्त्व को स्पष्ट करता है। हालाँकि गत वर्षों में कई देशों की सरकारों ने डॉलर पर अपनी निर्भरता को कम करने का प्रयास किया है, उदाहरण के लिये वर्ष 2017 में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने रुसी बंदरगाहों पर अमेरिकी डॉलर के माध्यम से व्यापार न करने का आदेश दिया था। परंतु जानकारों का मानना है कि डी-डॉलराइज़ेशन या वैश्विक बाज़ार में अमेरिकी डॉलर के वर्चस्व में कमी निकट भविष्य में संभव नहीं है।

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा के रूप में डॉलर

  • अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा वह मुद्रा होती है जिसे दुनिया भर में व्यापार या विनियम के माध्यम के रूप में स्वीकार किया जाता है। अमेरिकी डॉलर, यूरो और येन आदि विश्व की कुछ महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय मुद्राएँ हैं।
    • अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा को आरक्षित मुद्रा के रूप में भी जाना जाता है।
    • संयुक्त राष्ट्र (UN) ने दुनिया भर की 180 प्रचलित मुद्राओं को मान्यता प्रदान की है और अमेरिकी डॉलर भी इन्हीं में से एक है, परंतु खास बात यह है कि इनमें से अधिकांश का प्रयोग मात्र घरेलू स्तर पर ही किया जाता है।
    • विश्व भर के बैंकों की डॉलर पर निर्भरता को वर्ष 2008 के वैश्विक संकट में स्पष्ट रूप से देखा गया था।

    वैश्विक स्तर पर डॉलर की भूमिका

    • आरक्षित मुद्रा के रूप में
      • अंतर्राष्ट्रीय क्लेम को निपटाने और विदेशी मुद्रा बाज़ार में हस्तक्षेप करने के उद्देश्य से दुनिया भर के अधिकांश केंद्रीय बैंक अपने पास विदेशी मुद्रा का भंडार रखते हैं।
      • अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के मुताबिक, अमेरिकी डॉलर विश्व की सर्वाधिक लोकप्रिय अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा है। आँकड़ों के मुताबिक, 2019 की पहली तिमाही तक विश्व के सभी ज्ञात केंद्रीय बैंकों के कुल विदेशी मुद्रा भंडार का 61 प्रतिशत हिस्सा अमेरिकी डॉलर का है।
      • अमेरिका डॉलर के बाद यूरो को सबसे लोकप्रिय अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा माना जाता है, विदित हो कि वर्ष 2019 की पहली तिमाही तक विश्व के सभी केंद्रीय बैंकों के कुल विदेशी मुद्रा भंडार का 20 प्रतिशत हिस्सा यूरो का है।
      • गौरतलब है कि वर्ष 2010 से जापानी येन (Yen) की आरक्षित मुद्रा के रूप में भूमिका दुनिया की सबसे मज़बूत मुद्रा डॉलर में 5.4 प्रतिशत की गिरावट आई है, जबकि चीनी युआन (Yuan) और अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है, यद्यपि यह अभी मात्र 2 प्रतिशत का ही प्रतिनिधित्व करता है।
      • वर्तमान में गैर-अमेरिकी आयातकों और निर्यातकों के मध्य लेन-देन में अमेरिकी डॉलर खासी भूमिका निभा रहा है।
      • ज्ञात है कि विश्व का लगभग 90 प्रतिशत अंतर्राष्ट्रीय व्यापार डॉलर के माध्यम से ही होता है।
      • अंतर्राष्ट्रीय निपटान बैंक (BIS) के अनुसार, डॉलर में प्रकट बिल (Invoices) का अनुपात विश्व आयात में डॉलर की हिस्सेदारी का लगभग पाँच गुना अधिक है।
      • आँकड़ों के मुताबिक, 2018 में गैर-सदस्यों से यूरोपीय संघ में आयात की गई कुल वस्तुओं में आधे से अधिक के बिल/इनवॉइस अमेरिकी डॉलर में प्रस्तुत किये गए थे।
      • वैश्विक बाज़ारों में सक्रिय कंपनियाँ, जैसे- हवाई जहाज़ निर्माता कंपनी एयरबस (Airbus) प्रायः अपने मूल्यों को डॉलर में ही सूचीबद्ध करती हैं।
      • आमतौर पर तेल और सोने जैसी वस्तुओं का मूल्य निर्धारण अमेरिकी डॉलर में ही किया जाता है। गौरतलब है कि अधिकांश तेल उत्पादक देश बिक्री के बीजक (Invoice) बनाते समय उतार-चढ़ाव दुनिया की सबसे मज़बूत मुद्रा डॉलर के जोखिम से बचने के लिये अपनी मुद्रा का मूल्य निर्धारण डॉलर के आधार पर करते हैं।
      • वर्ष 2018 में डॉलर का वर्चस्व तब देखने को मिला जब अमेरिका ने ईरान पर पुनः प्रतिबंध लगाने और उसके साथ व्यापार करने वाले देशों को दंडित करने का फैसला किया।
      • BIS के आँकड़ों से पता चलता है कि अमेरिका से बाहर रहने वाले गैर-बैंकिंग उधारकर्त्ताओं पर जून 2019 तक 11.9 ट्रिलियन डॉलर का उधार था।

      डॉलर के विकास की कहानी

      • उल्लेखनीय है कि पहला अमेरिकी डॉलर वर्ष 1914 में फेडरल रिज़र्व बैंक द्वारा छापा गया था। 6 दशकों से कम समय में ही अमेरिकी डॉलर एक अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा के रूप में उभर कर सामने आ गया, हालाँकि डॉलर के लिये इतने कम समय में ख्याति हासिल करना शायद आसान नहीं था।
      • यह वह समय था जब अमेरिकी अर्थव्यवस्था ब्रिटेन को पछाड़ते हुए विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में उभर रही थी, परंतु ब्रिटेन अभी भी विश्व का वाणिज्य केंद्र बना हुआ था क्योंकि उस समय तक अधिकतर देश ब्रिटिश पाउंड के माध्यम से ही लेन -देन कर रहे थे।
        • साथ ही कई विकासशील देश अपनी मुद्रा विनिमय में स्थिरता लाने के लिये उसके मूल्य का निर्धारण सोने (Gold) के आधार पर कर रहे थे
        • इस व्यवस्था को ब्रेटन वुड्स समझौते के नाम से जाना जाता है।

        ‘एक विश्व मुद्रा’ की मांग

        • मार्च 2009 में चीन और रूस ने नई वैश्विक मुद्रा का आह्वान किया था, वे एक ऐसी मुद्रा चाहते थे जो कि ‘विश्व के किसी भी देश से जुड़ी न हो और लंबे समय तक स्थिर रहने में सक्षम हो।’
        • चीन को चिंता थी कि यदि डॉलर मुद्रास्फीति की शुरुआत होती है तो उसके पास मौजूद अरबों डॉलर का कोई मूल्य नहीं रह जाएगा। गौरतलब है कि यह स्थिति अमेरिकी घाटे में दुनिया की सबसे मज़बूत मुद्रा डॉलर वृद्धि और अमेरिकी ऋण के भुगतान के लिये अधिक-से-अधिक नोटों की छपाई के कारण संभव थी।
        • चीन ने डॉलर को प्रतिस्थापित करने के लिये नई मुद्रा का विकास करने हेतु IMF का आह्वान किया, हालाँकि अभी तक डॉलर को प्रतिस्थापित करना संभव नहीं हो पाया है परंतु चीन इस ओर अभी भी प्रयास कर रहा है और इस संदर्भ में वह अपनी अर्थव्यवस्था में भी काफी सुधार कर रहा है।

        निष्कर्ष

        अरबों डॉलर के विदेशी ऋण और घाटे की वित्तीय व्यवस्था के बावजूद वैश्विक बाज़ार को अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर विश्वास है। जिसके कारण अमेरिकी डॉलर आज भी विश्व की सबसे मज़बूत मुद्रा बनी हुई है और आशा है कि आने वाले वर्षों में भी यह महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा की भूमिका अदा करेगी, हालाँकि गत कुछ वर्षों में चीन दुनिया की सबसे मज़बूत मुद्रा डॉलर और रूस जैसे देशों ने डॉलर के समक्ष कई चुनौतियाँ पैदा की हैं। आवश्यक है कि चीन और रूस जैसे देशों की बात भी सुनी जानी चाहिये और सभी हितधारकों को एक मंच पर एकत्रित होकर यथासंभव संतुलित मार्ग की खोज करने दुनिया की सबसे मज़बूत मुद्रा डॉलर का प्रयास करना चाहिये।

        प्रश्न: वैश्विक वित्तीय प्रणाली में डॉलर की भूमिका का मूल्यांकन कीजिये।

        Rupee VS Dollar : मजबूत डॉलर से क्‍या पूरी दुनिया में मंदी लाएगा अमेरिका? क्‍यों पैदा हो रहा ये डर

        डॉलर के मुकाबले भारतीय मुद्रा अभी 82 रुपये के आसपास है.

        डॉलर के मुकाबले भारतीय मुद्रा अभी 82 रुपये के आसपास है.

        भारतीय मुद्रा सहित दुनियाभर की करेंसी इस समय डॉलर के सामने पानी भर रही है. इसका कारण ये नहीं कि किसी देश की मुद्रा कमजोर हो रही है, बल्कि डॉलर में आ रही मजबूती की वजह से उस मुद्रा पर दबाव है. आलम ये है कि अमेरिका डॉलर को मजबूत बनाने के लिए हरसंभव कोशिश कर रहा है, जिसका खामियाजा पूरी दुनिया को भुगतना पड़ रहा.

        • News18Hindi
        • Last Updated : October 19, 2022, 07:40 IST

        हाइलाइट्स

        अमेरिका को डॉलर के अंतरराष्ट्रीय करेंसी होने से जबरदस्त फायदे होते हैं.
        अमेरिका अपने इंपोर्ट के गैप को कम करने के लिए इसका इस्तेमाल करता है.
        दुनियाभर में होने वाला 40 फीसदी व्‍यापारिक लेनदेन डॉलर में ही किया जाता है.

        नई दिल्‍ली. डॉलर के मुकाबले कमजोर होते रुपये का संकट भारत के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर उभरा है. दुनियाभर के बाजारों में मंदी के बावजूद भारतीय बाजार किसी तरह अपने पैरों पर खड़ा होता नजर आ रहा है, लेकिन कमजोर करेंसी बाजारों को भूत की तरह डरा रही है. अब सवाल उठता है कि क्या अमेरिका जानबूझकर डॉलर को मजबूत कर रहा है या फिर अमेरिका को अपनी मंदी से ज्यादा डॉलर के कमजोर होने का डर है.

        रूबल पर लगाम कसने की तैयारी
        रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद भारत ने रूस से तेल खरीदा, जिस पर अमेरिका की नजर टेढ़ी हो गई है. अमेरिका को तेल के बजाए इस बात की ज्यादा चिंता है कि भारत, चीन और बाकी विकासशील देश कहीं आपस में मिलकर अपनी-अपनी करेंसी में व्यापार करने लगे तो उसके लिए बड़ी चुनौती खड़ी हो जाएगी. ऐसा हुआ तो डॉलर का अंतरराष्ट्रीय करेंसी के तौर पर बना रूतबा कम हो जाएगा.

        अभी है डॉलर का दबदबा
        अमेरिका को डॉलर के अंतरराष्ट्रीय करेंसी होने से जबरदस्त फायदे होते हैं. अमेरिका अपने इंपोर्ट के गैप को कम करने के लिए इसका इस्तेमाल करता है, जबकि बाकी देशों को इस गैप को पाटने के लिए बाजार से डॉलर खरीदना पड़ता है. भारत सरकार कई सालों से इस बात का सपना देख रही है कि कब वो अपने बड़े लेनदेन रुपये में करने लगेगी. इसके लिए मौजूदा मोदी सरकार ने अपनी पॉलिसी में भी बड़ा बदलाव किया है. आईएमएफ के आंकड़े देखें तो अभी दुनियाभर में होने वाला 40 फीसदी व्‍यापारिक लेनदेन डॉलर में ही किया जाता है.

        वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के तहत आने वाले विदेश व्यापार महानिदेशालय ने विदेश व्यापार नीति में संशोधन किया था, जिसके बाद वित्तीय लेनदेन भारतीय रुपये में करने का रास्‍ता खुला है. आरबीआई ने भारतीय बैंकों को विदेश में ब्रांच और खाता खोलने की अनुमति दी, लेकिन फिलहाल इस योजना के धरातल पर और तेजी से काम करने में समय लग सकता है.

        ब्रिक्स देशों की सुधार की कोशिशें
        ब्रिक्‍स देश स्विफ्ट ट्रांजेक्शन के तहत डॉलर के दबदबे को कम करने की कोशिशें कर रहे हैं लेकिन अभी तक कामयाब होते नहीं दिख रहे हैं. मजबूत होते डॉलर की वजह से भारत समेत दुनिया की इमरजिंग इकोनॉमी को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. चीन भारत और रूस ने ज्यादा से ज्यादा लोकल करेंसी में ट्रांजेक्शन की इच्छा जताई है. लेकिन अमेरिका अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए किसी भी कीमत पर डॉलर को कमजोर नहीं होने दे रहा है. इस बात को ऐसे समझिए कि अमेरिकी फेड ने ब्याज दरें बढ़ाई तो बाकी देशों को भी ब्याज दरों को बढ़ाने के लिए मजबूर होना पड़ा है. अब पूरी दुनिया अमेरिका की इस डॉलर दादागिरी से मुक्त होने के लिए झटपटा रही है.

        दूसरी ओर, फेड की आसमान छूती ब्याज दरों से अमेरिकी नागरिक और इकोनॉमी बुरी तरह टूट रही है. अमेरिकी बाजार 30 से 40 प्रतिशत तक टूट चुके हैं लेकिन अमेरिका को सिर्फ महंगाई और डॉलर की मजबूती की चिंता है. रूस-भारत समेत दुनिया के बाकी देशों के साथ लोकल करेंसी में कारोबार करने के लिए तैयार हैं लेकिन अमेरिका नहीं चाहता कि उसका डॉलर डॉमिनेंस किसी भी तरह से कम हो.

        महंगाई के घाटे को डॉलर से पाटता है अमेरिका
        महंगाई के कारण होने वाले घाटे को पाटने के लिए अमेरिका अपने डॉलर का इस्तेमाल करता है, लेकिन बाकी देशों के पास इस तरह की सुविधा नहीं है. फेड की ब्याज दरों के बढ़ने के बाद दुनिया के बाकी देशों की ग्रोथ पर भी बुरा असर पड़ा है. आईएमएफ ने भी भारत की ग्रोथ का अनुमान घटा दिया है. चीन में भी ग्रोथ का अनुमान घटा है. फेड की पॉलिसी के कारण अमेरिका मंदी की तरफ जा रहा है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या ये सब अमेरिका डॉलर को मजबूती प्रदान करने के लिए कर रहा है. चाहे इसके लिए पूरी दुनिया को कोई भी कीमत चुकानी पड़े.

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        दुनिया की सबसे मज़बूत मुद्रा डॉलर

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        U.S. Dollar: अमेरिकी डॉलर दूसरी मुद्राओं की तुलना नें पिछले दशकों में सबसे मज़बूत स्थिति में हैं. इसका मतलब है कि डॉलर ख़रीदना महंगा हो गया है, और एक डॉलर अब पहले से ज़्यादा पाउंड, यूरो या येन ख़रीद सकता है.

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        जानिए डॉलर क्यूं हो रहा हैं इतना मज़बूत दुनिया भर में मचाई खलबली

        Haryana Update: इसका असर दुनिया भर के व्यापार और घरों पर पड़ रहा है.

        डॉलर इंडेक्स यानी डीएक्सवाई, (Index i.e. DXY)अमेरिकी डॉलर की दुनिया की छह दूसरी मुद्राओं(currencies) से तुलना करता है. इसमें यूरो, पाउंड और येन(Euro, Pound and Yen) शामिल हैं.

        डीएक्सवाई(DXY) 2022 में 15 प्रतिशत बढ़ा है. ये आँकड़े बताते हैं कि डॉलर पिछले 20 सालों में सबसे ऊंचाई पर है.

        इतना मज़बूत क्यों है डॉलर(why is the dollar so strong)

        अमेरिका के सेंट्रल बैंक ने इस साल बढ़ती कीमतों को काबू में करने के लिए कई बार ब्याज दर बढ़ाएं हैं.

        इसका असर ये हुआ है कि उन वित्तीय उत्पादों से कमाई बढ़ गई है जो डॉलर का इस्तेमाल करते हैं. इसका एक उदाहरण अमेरिकी सरकारी बॉन्ड हैं.

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        बॉण्ड सरकार और कंपनियों के लिए पैसे उधार लेने का एक तरीका होते हैं, जिसके तहत भविष्य में एक ब्याज के साथ पैसे वापस करने का वादा किया जाता है.

        सरकारी बॉण्ड आमतौर पर सुरक्षित माने जाते हैं.

        हाल के दिनों में निवेशक लाखों डॉलर ख़र्च कर अमेरिकी बॉण्ड ख़रीद रहे हैं. उन्हें इन बॉण्ड्स को ख़रीदने के लिए डॉलर (Dollar)ख़र्च करने पड़ रहे हैं, और बढ़ती हुई डिमांड के कारण डॉलर(Dollar) की कीमत बढ़ी है.

        जब निवेशक डॉलर ख़रीदने के लिए दूसरी दुनिया की सबसे मज़बूत मुद्रा डॉलर दुनिया की सबसे मज़बूत मुद्रा डॉलर मुद्राओं का इस्तेमाल करते हैं, तो उन मुद्राओं की कीमत गिरती है.

        निवेशक ऐसे समय में भी डॉलर ख़रीदना चाहते हैं, जब वैश्विक अर्थव्यवस्था संकट में होती है. इसकी वजह ये है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था बहुत बड़ी है और इसे 'सुरक्षित जगह' समझा जाता है. इस कारण से भी क़ीमतें बढ़ती हैं.

        यूरोप और एशिया की कई अर्थव्यवस्थाएं तेल की बढ़ती कीमतों के कारण मुश्किल में हैं.

        अमेरिका में पिछले छह महीने में बढ़ती कीमतों का इतना ज़्यादा असर नहीं हुआ है.

        पिछले तीन महीने अमेरिका की अर्थव्यवस्था भी सिकुड़ी है, लेकिन कंपनियों में नियुक्तियां हो रही हैं, इसे बढ़ते भरोसे की तरह देखा जा रहा है.

        पाउंड की तुलना में मज़बूत होता डॉलर

        26 सितंबर को पाउंड डॉलर के मुकाबले रिकॉर्ड स्तर पर गिरा, इसकी कीमत 1.03 डॉलर थी. इसके बाद से थोड़ा सुधार हुआ है.

        साल की शुरुआत से अबतक पाउंड में 20 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है. इसके बाद ब्रिटेन के वित्त मंत्री क्वासी क्वारटेंग ने 45 अरब पाउंड का टैक्स कटौती वाला एक मिनी बजट लेकर आए. इसके अलावा उन्होंने व्यापार और घरों में बिजली सब्सिडी का एलान भी किया.

        उन्होंने इशारा किया कि और भी टैक्स कटौती हो सकती है. कई निवेशकों ने ब्रिटेन के बॉण्ड और दूसरे ऐसेट बेच दिए क्योंकि उन्हें डर है कि वित्त मंत्री के उठाए कदम से सरकारी उधारी बहुत अधिक बढ़ सकती है. इस कारण भी पाउंड की कीमत गिरी.

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        पाउंड की तरह जापान के येन की कीमत भी डॉलर के मुकाबले 20 प्रतिशत गिरी, और यूरो 15 प्रतिशत.

        कमज़ोर मुद्रा वाले देशों को मज़बूत डॉलर(Dollar) से फ़ायदा होता है क्योंकि उनके लिए सामान और सर्विस बेचना सस्ता हो जाता है. इससे निर्यात बढ़ता है.

        हालांकि इसका मतलब ये भी है कि अमेरिका से निर्यात महंगा हो जाता है. तेल की कीमत अमेरिकी डॉलर (U.S. Dollar)में तय होती है, इसलिए कई देशों में तेल महंगा हो गया है.

        उदाहरण के लिए ब्रिटेन में साल की शुरुआत में एक लीटर पेट्रोल की औसत कीमत 1.46 पाउंड थी जो कि बढ़कर औसतन 1.67 हो गई है, मतलब 15 प्रतिशत की बढ़ोतरी. जुलाई में ये 1.91 डॉलर के साथ ये कीमत अपने चरम पर थी.

        सरकारें और कंपनियां कई बार अमेरिकी डॉलर(Dollar) में उधार लेते हैं, क्योंकि आमतौर पर इसकी कीमत उनकी अपनी मुद्रा की तुलना में स्थिर होती है.

        डॉलर की कीमत बढ़ती है तो स्थानीय करेंसी में कर्ज़ चुकाना मुश्किल हो जाता है.

        अर्जेंटीना की सरकार पर मज़बूत डॉलर का बुरा प्रभाव पड़ा है. उसने अस्थायी तौर पर सामानों के आयात पर बैन लगा दिया है. उसने ये क़दम अपने सुरक्षित मुद्रा भंडार को बचाने के लिए किया गया है.

        दूसरे देश क्या कदम उठा रहे हैं?

        दुनिया के कई देश ब्याज दरें बढ़ाकर अपनी मुद्रा का मूल्य बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं. ब्रिटेन ने अभी तक दर 2% बढ़ाया है.

        ब्रिटेन के केंद्रीय बैंक(UK central bank), बैंक ऑफ़ इंग्लैंड (bank of england) का कहना है कि ब्याज दर और बढ़ सकते हैं. कई जानकारों का कहना है कि ब्याज दर 6% तक जा सकते हैं.

        यूरोपियन सेंट्रल बैंक(European central bank) ने ब्याज दर 1.25% बढ़ाया है. ब्याज दर बढ़ाने से बढ़ती कीमतों को कम करने में मदद मिलती है, लेकिन साथ ही आम लोगों और व्यापारियों के लिए कर्ज़ लेना महंगा हो जाता है.

        इससे महंगाई कम करने में मदद मिलती है लेकिन कंपनियों का मुनाफ़ा कम होने का डर होता है और लोगों की नौकरियाँ जा सकती हैं.

        परिवार ख़र्चों में कटौती करने लगते हैं. इससे मंदी में जाने का डर होता है यानी अर्थव्यवस्था सिकुड़ती है.

        लेकिन हाल के दिनों में पाउंड की कीमतें कम होने से पहले बैंक ऑफ़ इंग्लैंड ने ब्रिटेन (England Britain)के मंदी में जाने की चेतावनी दी थी.

        2 साल के निचले स्तर पर विदेशी मुद्रा भंडार, डॉलर के आगे रेंग रहा रुपया, आप पर क्या असर?

        डॉलर के मुकाबले भारतीय करेंसी रुपया ने पहली बार 81 के स्तर को पार किया है। शुक्रवार को कारोबार के दौरान गिरावट ऐसी रही कि रुपया 81.23 के स्तर तक जा पहुंचा था। हालांकि, बाद में मामूली रिकवरी दिखी।

        2 साल के निचले स्तर पर विदेशी मुद्रा भंडार, डॉलर के आगे रेंग रहा रुपया, आप पर क्या असर?

        अमेरिका के सेंट्रल बैंक फेड रिजर्व द्वारा ब्याज दर बढ़ाए जाने के बाद भारतीय करेंसी रुपया एक बार फिर रेंगने लगा है। इस बीच, विदेशी मुद्रा भंडार ने भी चिंता बढ़ा दी है। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार लगातार सातवें सप्ताह गिरा है और अब यह 2 साल के निचले स्तर पर आ चुका है।

        रुपया की स्थिति: डॉलर के मुकाबले रुपया ने पहली बार 81 के स्तर को पार किया है। शुक्रवार को कारोबार के दौरान गिरावट ऐसी रही कि रुपया 81.23 के स्तर तक जा पहुंचा था। हालांकि, कारोबार के अंत में मामूली रिकवरी हुई। इसके बावजूद रुपया 19 पैसे गिरकर 80.98 रुपये प्रति डॉलर के लेवल पर बंद हुआ। यह पहली बार है जब भारतीय करेंसी की क्लोजिंग इतने निचले स्तर पर हुई है।

        विदेशी मुद्रा भंडार की स्थिति: आरबीआई के ताजा आंकड़ों के मुताबिक 16 सितंबर को सप्ताह में विदेशी मुद्रा भंडार गिरकर 545.652 बिलियन डॉलर पर आ गया। पिछले सप्ताह भंडार 550.871 अरब डॉलर था। विदेशी मुद्रा भंडार का यह दो साल का निचला स्तर है। अब सवाल है कि रुपया के कमजोर होने या विदेशी मुद्रा भंडार के घट जाने की कीमत आपको कैसे चुकानी पड़ सकती है?

        रुपया कमजोर होने की वजह: विदेशी बाजारों में अमेरिकी डॉलर के लगातार मजबूत बने रहने की वजह से रुपया कमजोर हुआ है। दुनिया की छह प्रमुख मुद्राओं के समक्ष डॉलर की मजबूती को आंकने वाला डॉलर सूचकांक 0.72 प्रतिशत चढ़कर 112.15 पर पहुंच गया है। डॉलर इसिलए मजबूत बना हुआ है क्योंकि अमेरिकी फेड रिजर्व ने लगातार तीसरी बार ब्याज दर में 75 बेसिस प्वाइंट बढ़ोतरी कर दी है।

        दरअसल, ब्याज दर बढ़ने की वजह से ज्यादा मुनाफे के लिए विदेशी निवेशक अमेरिकी बाजार की दुनिया की सबसे मज़बूत मुद्रा डॉलर ओर आकर्षित हो रहे हैं। इस वजह से डॉलर को मजबूती मिल रही है। इसके उलट भारतीय बाजार में बिकवाली का माहौल लौट आया है। बाजार से निवेशक पैसे निकाल रहे हैं, इस वजह से भी रुपया कमजोर हुआ है।

        असर क्या होगा: रुपया कमजोर होने से भारत का आयात बिल बढ़ जाएगा। भारत को आयात के लिए पहले के मुकाबले ज्यादा पैसे खर्च करने पड़ेंगे। रुपया कमजोर होने से आयात पर निर्भर कंपनियों का मार्जिन कम होगा, जिसकी भरपाई दाम बढ़ाकर की जाएगी। इससे महंगाई बढ़ेगी। खासतौर पर पेट्रोलियम उत्पाद के मामले में भारत की आयात पर निर्भरता ज्यादा है। इसके अलावा विदेश घूमना, विदेश से सर्विसेज लेना आदि भी महंगा हो जाएगा।

        विदेशी मुद्रा भंडार पर असर: रुपया कमजोर होने से विदेशी मुद्रा भंडार कमजोर होता है। देश को आयात के लिए ज्यादा पैसे खर्च करने पड़ते हैं तो जाहिर सी बात है कि खजाना खाली होगा। यह आर्थिक लिहाज से ठीक बात नहीं है।

        दुनिया की सबसे मज़बूत मुद्रा डॉलर

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        U.S. Dollar: अमेरिकी डॉलर दूसरी मुद्राओं की तुलना नें पिछले दशकों में सबसे मज़बूत स्थिति में हैं. इसका मतलब है कि डॉलर ख़रीदना महंगा हो गया है, और एक डॉलर अब पहले से ज़्यादा पाउंड, यूरो या येन ख़रीद सकता है.

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        जानिए डॉलर क्यूं हो रहा हैं इतना मज़बूत दुनिया भर में मचाई खलबली

        Haryana Update: इसका असर दुनिया भर के व्यापार और घरों पर पड़ रहा है.

        डॉलर इंडेक्स यानी डीएक्सवाई, (Index i.e. DXY)अमेरिकी डॉलर की दुनिया की छह दूसरी मुद्राओं(currencies) से तुलना करता है. इसमें यूरो, पाउंड और येन(Euro, Pound and Yen) शामिल हैं.

        डीएक्सवाई(DXY) 2022 में 15 प्रतिशत बढ़ा है. ये आँकड़े बताते हैं कि डॉलर पिछले 20 सालों में सबसे ऊंचाई पर है.

        इतना मज़बूत क्यों है डॉलर(why is the dollar so strong)

        अमेरिका के सेंट्रल बैंक ने इस साल बढ़ती कीमतों को काबू में करने के लिए कई बार ब्याज दर बढ़ाएं हैं.

        इसका असर ये हुआ है कि उन वित्तीय उत्पादों से कमाई बढ़ गई है जो डॉलर का इस्तेमाल करते हैं. इसका एक उदाहरण अमेरिकी सरकारी बॉन्ड हैं.

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        बॉण्ड सरकार और कंपनियों के लिए पैसे उधार लेने का एक तरीका होते हैं, जिसके तहत भविष्य में एक ब्याज के साथ पैसे वापस करने का वादा किया जाता है.

        सरकारी बॉण्ड आमतौर पर सुरक्षित माने जाते हैं.दुनिया की सबसे मज़बूत मुद्रा डॉलर

        हाल के दिनों में निवेशक लाखों डॉलर ख़र्च कर अमेरिकी बॉण्ड ख़रीद रहे हैं. उन्हें इन बॉण्ड्स को ख़रीदने के लिए डॉलर (Dollar)ख़र्च करने पड़ रहे हैं, और बढ़ती हुई डिमांड के कारण डॉलर(Dollar) की कीमत बढ़ी है.

        जब निवेशक डॉलर ख़रीदने के लिए दूसरी मुद्राओं का इस्तेमाल करते हैं, तो उन मुद्राओं की कीमत गिरती है.

        निवेशक ऐसे समय में भी डॉलर ख़रीदना चाहते हैं, जब वैश्विक अर्थव्यवस्था संकट में होती है. इसकी वजह ये है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था बहुत बड़ी है और इसे 'सुरक्षित जगह' समझा जाता है. इस कारण से भी क़ीमतें बढ़ती हैं.

        यूरोप और एशिया की कई अर्थव्यवस्थाएं तेल की बढ़ती कीमतों के कारण मुश्किल में हैं.

        अमेरिका में पिछले छह महीने में बढ़ती कीमतों का इतना ज़्यादा असर नहीं हुआ है.

        पिछले तीन महीने अमेरिका की अर्थव्यवस्था भी सिकुड़ी है, लेकिन कंपनियों में नियुक्तियां हो रही हैं, इसे बढ़ते भरोसे की तरह देखा जा रहा है.

        पाउंड की तुलना में मज़बूत होता डॉलर

        26 सितंबर को पाउंड डॉलर के मुकाबले रिकॉर्ड स्तर पर गिरा, इसकी कीमत 1.03 डॉलर थी. इसके बाद से थोड़ा सुधार हुआ है.

        साल की शुरुआत से अबतक पाउंड में 20 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है. इसके बाद ब्रिटेन के वित्त मंत्री क्वासी क्वारटेंग ने 45 अरब पाउंड का टैक्स कटौती वाला एक मिनी बजट लेकर आए. इसके अलावा उन्होंने व्यापार और घरों में बिजली सब्सिडी का एलान भी किया.

        उन्होंने इशारा किया कि और भी टैक्स कटौती हो सकती है. कई निवेशकों ने ब्रिटेन के बॉण्ड और दूसरे ऐसेट बेच दिए क्योंकि उन्हें डर है कि वित्त मंत्री के उठाए कदम से सरकारी उधारी बहुत अधिक बढ़ सकती है. इस कारण भी पाउंड की कीमत गिरी.

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        पाउंड की तरह जापान के येन की कीमत भी डॉलर के मुकाबले 20 प्रतिशत गिरी, और यूरो 15 प्रतिशत.

        कमज़ोर मुद्रा वाले देशों को मज़बूत डॉलर(Dollar) से फ़ायदा होता है क्योंकि उनके लिए सामान और सर्विस बेचना सस्ता हो जाता है. इससे निर्यात बढ़ता है.

        हालांकि इसका मतलब ये भी है कि अमेरिका से निर्यात महंगा हो जाता है. तेल की कीमत अमेरिकी डॉलर (U.S. Dollar)में तय होती है, इसलिए कई देशों में तेल महंगा हो गया है.

        उदाहरण के लिए ब्रिटेन में साल की शुरुआत में एक लीटर पेट्रोल की औसत कीमत 1.46 पाउंड थी जो कि बढ़कर औसतन 1.67 हो गई है, मतलब 15 प्रतिशत की बढ़ोतरी. जुलाई में ये 1.91 डॉलर के साथ ये कीमत अपने चरम पर थी.

        सरकारें और कंपनियां कई बार अमेरिकी डॉलर(Dollar) में उधार लेते हैं, क्योंकि आमतौर पर इसकी कीमत उनकी अपनी मुद्रा की तुलना में स्थिर होती है.

        डॉलर की कीमत बढ़ती है तो स्थानीय करेंसी में कर्ज़ चुकाना मुश्किल हो जाता है.

        अर्जेंटीना की सरकार पर मज़बूत डॉलर का बुरा प्रभाव पड़ा है. उसने अस्थायी तौर पर सामानों के आयात पर बैन लगा दिया है. उसने ये क़दम अपने सुरक्षित मुद्रा भंडार को बचाने के लिए किया गया है.

        दूसरे देश क्या कदम उठा रहे हैं?

        दुनिया के कई देश ब्याज दरें बढ़ाकर अपनी मुद्रा का मूल्य बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं. ब्रिटेन ने अभी तक दर 2% बढ़ाया है.

        ब्रिटेन के केंद्रीय बैंक(UK central bank), बैंक ऑफ़ इंग्लैंड (bank of england) का कहना है कि ब्याज दर और बढ़ सकते हैं. कई जानकारों का कहना है कि ब्याज दर 6% तक जा सकते हैं.

        यूरोपियन सेंट्रल बैंक(European central bank) ने ब्याज दर 1.25% बढ़ाया है. ब्याज दर बढ़ाने से बढ़ती कीमतों को कम करने में मदद मिलती है, लेकिन दुनिया की सबसे मज़बूत मुद्रा डॉलर साथ ही आम लोगों और व्यापारियों के लिए कर्ज़ लेना महंगा हो जाता है.

        इससे महंगाई कम करने में मदद मिलती है लेकिन कंपनियों का मुनाफ़ा कम होने का डर होता है और लोगों की नौकरियाँ जा सकती हैं.

        परिवार ख़र्चों में कटौती करने लगते हैं. इससे मंदी में जाने का डर होता है यानी अर्थव्यवस्था सिकुड़ती है.

        लेकिन हाल के दिनों में पाउंड की कीमतें कम होने से पहले बैंक ऑफ़ इंग्लैंड ने ब्रिटेन (England Britain)के मंदी में जाने की चेतावनी दी थी.

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